कन्यादान क्यों करते हैं? इसकी रीति-रस्में और महत्व

कन्यादान की रसम हिन्दू विवाह में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसका अर्थ होता है कन्या (लड़की) का दान करना। इसमें लड़की का बाप वर को अपनी बेटी सौंपता है ताकि अब वह उसका उम्रभर ख्याल रखें। पिता जितना कोई भी उसकी बेटी को प्यार नहीं कर सकता परन्तु फिर भी एक पिता अपनी बेटी किसी अनजान के भरोसे में उम्र भर के लिए सौंप देता है। Kanyadan Kyun Karte Hain

यह एक भावुक संस्कार है जिसमें एक बेटी अपने पिता के त्याग को देख उसकी अनुभूति करती है। यह सब उसका पिता उसके आने वाले भविष्य के लिए करता है ताकि वह सुखी रह सके।

कन्यादान की प्राचीन काल में शुरुवात (ऐतिहासिक पृष्ठभूमि)

कन्यादान की शुरुवात वेदों से हुई थी। उस काल में महिला की पसंद को परम महत्व दिया जाता था। उसे “किससे विवाह करना है” यह निर्णय लेने की पूरी आज़ादी दी जाती थी। विवाह के बाद वह पति के समान खड़ी होती थी और बराबर की भागीदार बनती थी। पुराने काल में पिता का अपनी बेटी को वर के हाथों सौंपना नहीं सुना गया था।

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धीरे धीरे वेदों से हट कर मनुस्मृति को आधुनिक हिन्दू कानून का आधार माना जाने लगा। जैसे जैसे वेदिक रस्मों, रीति-रिवाज़ों में परिवर्तन आने लगे मनुस्मृति में लिखे गये नियमों का पालन किया जाने लगा। महिला का दर्जा भी बदलता गया। उनको वेदिक समय में पुरुषों जितना समान दर्जा दिया जाता था वह काफी कम कर दिया गया। अब उन्हें पुरुषों के नीचे काम करना पड़ता था। यहाँ से कन्यादान का जन्म हुआ जहाँ महिला को वस्तु/संपत्ति समान समझा जाने लगा। उन्हें एक पुरुष द्वारा दान कर दूसरे पुरुष के हाथों सौंप दिया जाता था।

महिला को उम्रभर पुरुष की देखवाली में रखा जाने लगा – कुंवारी को पिता के अंदर, शादीशुदा को पति की देखरेख में और बुढ़ापे में उसके पुत्र की निगरानी में। लोग कन्या को संपत्ति के रूप में देखने लगे और उसकी शादी वर से की जाने लगी इस उम्मीद में की वो उसको कीमती समझ कर संभाल कर रखेगा।

मनुस्मृति के अनुसार किसी भी परिवार का संबसे बड़ा दान उनकी बेटी का दान होता है। परन्तु इस विधि में पिता और उसकी पुत्री के बीच का रिश्ता है। उनके बीच का प्यार और कई भावनायें छिपी होती हैं।

कन्यादान के रीति-रिवाज़

यह रिवाज़ महिला की ज़िन्दगी में आने वाले बदलाव का सूचक है जिसमें अब वे एक बेटी से किसी की पत्नी और बहू बनने जा रही है। अपने घर की परिचित दीवारों को छोड़ वो पराये घर में खुशहाली लाने जा रही है।

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अन्य हिन्दू रिवाज़ों के तरह इसमें भी कन्यादान करने वाले को व्रत करना अनिवार्य होता है। अधिक्तर कन्यादान वधू के पिता द्वारा किये जाते हैं। पिता न कर सकें तो इस रीति को घर के अन्य बुज़ुर्ग सदस्य पूरा कर सकते हैं। वैसे तो खाना वर्जित है परन्तु आजकल पानी पिया जा सकता है।

क्रियाओं का क्रम:

  • वधू को विवाह स्थल पर बुलाया जाता है। इसके बाद वह वर के साथ माले बदलती है। उन दोनों को फिर एक दूसरे के विपरीत अग्नि के सामने बैठाया जाता है। वर अपना दायां हाथ वधु के सामने रखता है जिस पर वधू अपना दायां हाथ रखती है। इसे हस्तमिलाप कहते हैं।
  • उन दोनों को पवित्र धागे या लाल कपड़े से बाँधा जाता है। उसके ऊपर पान का पत्ता और कुछ पुष्प रखे जाते हैं। कुछ प्रांतों में रूपये और सोने के सिक्के रखे जा सकते हैं।
  • वधू के पिता या कभी उसकी माँ भी उनके हाथ वर-वधू के ऊपर अपने हाथ रखते हैं। गंगा जल अकेले या फिर दूध के साथ वर-वधू के जुड़े हुए हाथों पर डाला जाता है और इसी दौरान उन्हें पंडित के बताये मन्त्र का जाप करना पड़ता है। पंडित कामदेव जी की अर्चना में मन्त्र और पूजा करते हैं क्योंकि वे प्रेम देवता माने जाते हैं।
  • वर को वधू के दाएं कंधे पर अपना खुला हुआ हाथ रखना पड़ता है जो उसका अपनी पत्नी की ज़िम्मेदारी लेने का सूचक है।
  • यह पति पत्नी की किस्मत को एक दूसरे से जोड़ने का सूचक है। अब वधू अपने घर की नहीं रही और पराये घर की होने जा रही है। अब वो अपने पति के घर में सभी सदस्यों खास कर अपनी पति की ज़िम्मेदरियाँ सँभालने वाली है।
  • इसके पश्चात वर के घरवालों की तरफ से रीतियाँ की और निभाईं जाती हैं।
  • वर वधू का हाथ थामे फेरे लेने के लिए आगे बढ़ता है। वे सप्तपदी (शादी की सात कसमें) खाते हैं।

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कन्यादान का महत्व

वर को विष्णु देवता का चिन्ह माना जाता है। कन्यादान के रूप परिवार जन अपने घर की सबसे बेशकीमती संपत्ति अपनी प्यारी बिटिया रानी को विष्णु देवता को सौंप रहे हैं। उनको इससे बड़ा और क्या चढ़ावा दिया जा सकता है? परम देवता को अपनी बेटी अर्पित करने से माना जाता है की उसके माँ-बाप के सभी पुराने पाप धुल जाते हैं और वे मोक्ष प्राप्ति कर लेते हैं जिसमें वे जन्म, जीवन, मृत्यु और पुनःजन्म के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।

हम आशा करते हैं की आप और आपके पति आपस में सभी कार्यों में भागीदारी निभाते होंगे और एक दुःख के सुख दुःख के साथी हैं।

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