हेल्लो दोस्तों सप्तमी व्रत प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष कि सप्तमी तिथि के दिन किया जाता है. यह व्रत विशेष रुप से संतान प्राप्ति, संतान रक्षा और संतान की उन्नति के लिये किया जाता है. यूं तो प्रत्येक मास की शुक्ल पक्ष के व्रत का विशेष महत्व है, परन्तु इसमें भी भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी का व्रत (Santan Saptami Vrat) अपना विशेष महत्व रखता है.
इस बार संतान सप्तमी का व्रत एवं त्यौहार 13 सितंबर 2021 दिन सोमवार को देश भर में मनाया जाएगा। संतान सप्तमी व्रत को मुक्ताभरण संतान सप्तमी व्रत भी कहा जाता है. संतान सप्तमी व्रत (santan saptami vrat kyun kiya jata hai) के दिन भगवान शंकर और माता पार्वती की पूजा होती है. इस दिन व्रत रखने का खास महत्व है.
ये भी पढ़िए : जानिए कब है शीतला सप्तमी? इस व्रत के प्रभाव से दूर होते हैं सभी…
विषयसूची :
संतान सप्तमी शुभ मुहूर्त ( Santan Saptami Shubh Muhurt) :
सप्तमी तिथि 12 सितंबर 2021 दिन रविवार को 5:20 शाम को शुरू
13 सितंबर 2021 दिन सोमवार को 3:10 दोपहर को समाप्त होगी।
पूजा का शुभ मुहूर्त :-13 सितंबर 2021 को सुबह 12:00 बजे से दोपहर में 3:10 तक रहेगा।
संतान सप्तमी का व्रत कैसे रखें? :
इस दिन सुबह ज्ल्दी उठकर स्नान करें और स्वच्छ कपड़े पहनें इसके बाद भगवान शिव और माता पार्वती की आराधना करें और व्रत का संकल्प लें. निराहार रहकर आपको शुद्धता के साथ पूजा का प्रसाद भी तैयार करना होगा. इसके लिए खीर-पूरी व गुड़ के 7 पुए या फिर 7 मीठी पूरी तैयार कर लें.
संतान सप्तमी पूजन विधि (Santan Saptami Poojan Vidhi) :
इस दिन प्रातः काल सुबह जल्दी उठकर नहा धोकर तैयार हो जाए।
सुबह शिव जी व विष्णु जी की पूजा करें। तत्पश्चात संतान सप्तमी व्रत तथा पूजन का संकल्प लें।
निराहार रहते हुए शुद्धता से पूजन का सामान तैयार करें जैसे खीर सात-सात पूआ, या मीठी पूड़ी।
फिर पूजन स्थल को गंगाजल छिड़ककर शुद्ध करें। फिर लकड़ी की चौकी पर लाल वस्त्र बिछाए।
इसके बाद शिव परिवार की प्रतिमा या चित्र को स्थापित करें फिर कलश की स्थापना करें।
कलश में जल, सुपारी, अक्षत, 01 रुपए का सिक्का डालकर उस पर आम का पल्लव लगा कर उसके ऊपर दियाली में चावल रखकर एक दीपक उसके ऊपर जला दें।
फिर भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद 7-7 पूये (आटे और शक्कर से बना हुआ) केले के पत्ते में बांधकर वहां पर रख दें।
इस व्रत में पूये का भोग लगाने का महत्व है। इसके बाद फल फूल धूप दीप आदि से विधिवत पूजा करें।
इसके बाद चांदी के कड़े को शिव परिवार के सामने रखकर दूध व जल से शुद्ध करके टीका लगाएं। व भगवान का आशीर्वाद प्राप्त करें।
पूजा के समय सूती का डोरा या फिर चांदी की संतान सप्तमी की चूड़ी हाथ में जरूर पहननी चाहिए. यह व्रत माता और पिता दोनों के द्वारा किया जा सकता है।
इसके बाद संतान सप्तमी व्रत कथा सुने। यह पूजा 12:00 बजे के बाद ही होती है।
पूजन करने के बाद व्रत कथा सुनने के बाद सात-सात पूये जो कि भगवान को चढ़ाए गए थे उसमें से सात पूयें ब्राह्मण को दान में दे दें व 7 पूयें खुद खाएं। व इसी से अपने व्रत को तोड़े।
ये भी पढ़िए : जानिए गंगा सप्तमी का शुभ मुहूर्त, पूजा विधि, कथा और महत्व
संतान सप्तमी व्रत विधि (Santan Saptami Vrat Vidhi) :
सप्तमी का व्रत माताएं अपने संतान के लिए करती हैं. इस व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा का विधान है.
इस व्रत में अपराह्न तक पूजा-अर्चना करने का विधान है.
इस व्रत को करने वाली माता को प्रात:काल में स्नान और नित्यक्रम क्रियाओं से निवृ्त होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए.
इसके बाद सुबह भगवान विष्णु और भगवान शिव की पूजा अर्चना करनी चाहिए और सप्तमी व्रत का संकल्प लेना चाहिए.
निराहार व्रत कर, दोपहर को चौक पूरकर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेध, सुपारी तथा नारियल आदि से शिव-पार्वती की पूजा करनी चाहिए.
सप्तमी तिथि के व्रत में नैवेद्ध के रुप में खीर-पूरी तथा गुड के पुए बनाये जाते है.
संतान की रक्षा की कामना करते हुए भगवान भोलेनाथ को कलावा अर्पित किया जाता है तथा इसे स्वयं धारण कर व्रत कथा सुननी चाहिए.
संतान सप्तमी व्रत कथा (Santan Saptami Vrat Katha) :
सप्तमी व्रत की कथा से संबंधिक एक पौराणिक कथा प्रचलित है. इस कथा के अनुसार एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि किसी समय मथुरा में लोमश ऋषि आए थे. मेरे माता-पिता देवकी तथा वसुदेव ने भक्तिपूर्वक उनकी सेवा की तो ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने के लिए उन्हें ‘संतान सप्तमी’ का व्रत करने को कहा था.
लोमश ऋषि ने उन्हें व्रत का पूजन-विधान बताकर व्रत कथा सुनाते हैं. कथा इस प्रकार है- नहुष अयोध्यापुरी का प्रतापी राजा था. उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था. उसके राज्य में ही विष्णुदत्त नामक एक ब्राह्मण रहता था. उसकी पत्नी का नाम रूपवती था. रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती में परस्पर घनिष्ठ प्रेम था. एक दिन वे दोनों सरयू में स्नान करने गईं. वहां अन्य स्त्रियां भी स्नान कर रही थीं. उन स्त्रियों ने वहीं पार्वती-शिव की प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक उनका पूजन किया, तब रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती ने उन स्त्रियों से पूजन का नाम तथा विधि के बारे में पूछा.
ये भी पढ़िए : कब है अचला सप्तमी? जानें पूजा मुहूर्त, तिथि और इसका महत्व
उन स्त्रियों में से एक ने बताया- यह व्रत संतान देने वाला है. उस व्रत की बात सुनकर उन दोनों सखियों ने भी जीवन-पर्यन्त इस व्रत को करने का संकल्प किया और शिवजी के नाम का डोरा बांध लिया. किन्तु घर पहुंचने पर वे संकल्प को भूल गईं. फलतः मृत्यु के पश्चात रानी वानरी तथा ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुईं.
कालांतर में दोनों पशु योनि छोड़कर पुनः मनुष्य योनि में आईं. चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया. इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था. भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्निमुखी के साथ हुआ. इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया.
व्रत के प्रभाव से हुई संतान की प्राप्ति –
व्रत भूलने के कारण ही रानी इस जन्म में भी संतान सुख से वंचित रहीं. भूषणा ने व्रत को याद रखा था इसलिए उसके गर्भ से सुन्दर तथा स्वस्थ आठ पुत्रों ने जन्म लिया. रानी ईश्वरी के पुत्रशोक की संवेदना के लिए एक दिन भूषणा उससे मिलने गई. उसे देखते ही रानी के मन में ईर्ष्या पैदा हो गई और उसने उसके बच्चों को मारने का प्रयास किया. किन्तु वह बालकों का बाल भी बांका न कर सकी.
उसने भूषणा को बुलाकर सारी बात बताईं और फिर क्षमा याचना करके उससे पूछा- आखिर तुम्हारे बच्चे मरे क्यों नहीं. भूषणा ने उसे पूर्वजन्म की बात स्मरण कराई और कहा कि उसी के प्रभाव से आप मेरे पुत्रों को चाहकर भी न मार सकीं. यह सब सुनकर रानी ईश्वरी ने भी विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ताभरण व्रत रखा तब व्रत के प्रभाव से रानी गर्भवती हुई और एक सुंदर बालक को जन्म दिया. उसी समय से पुत्र-प्राप्ति और संतान की रक्षा के लिए यह व्रत प्रचलित है.