हेल्लो दोस्तों भारत कृषि-प्रधान देश है यही वजह है कि यहां के अधिकांश पर्वों का संबंध फसलों की कटाई-बुआई-गुड़ाई अथवा हल-बैल इत्यादि से होता है. ऐसा ही एक पर्व है पोला. यह महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश के प्रमुख पर्वों में एक है. यहां के कृषक इस दिन गाय एवं बैलों को स्नान करवाकर, उन्हें स्वच्छ वस्त्र पहनाते हैं, उनका साज-श्रृंगार करते हैं, उन्हें अच्छे-अच्छे भोजन कराते हैं, एवं उनकी पूजा-अर्चना करते हैं. आइये जानें पोला (Pola) कब है और इसका क्या महत्व है तथा इसे कैसे सेलीब्रेट करते हैं. Pola Festival 2020
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हिंदी पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष भाद्रपद मास की अमावस्या (Bhadrapad Amavasya) के दिन पोला पर्व (Pola Festival) मनाते हैं. कई जगहों पर इस दिन को पिठोरी अमावस्या (Pithori Amavasya) के नाम से भी पुकारा जाता है. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस वर्ष यानी 2020 में पोला का पर्व 19 अगस्त को पड़ रहा है.
पूजा का विधि-विधान – Pola Pooja Vidhi
पोला की पूर्व रात्रि को गर्भ-पूजन की परंपरा निभाई जाती है. मान्यता है कि इस दिन अन्न माता गर्भ धारण करती हैं. अर्थात धान के पौधों में दूध भरता है. यही वजह है कि जिन-जिन राज्यों में यह पोला मनाया जाता है, वहां पोला के दिन किसी को खेतों में जाने की अनुमति नहीं रहती है.

रात में जब सभी लोग सो रहे होते हैं, तब गांव के पुजारी, मुखिया तथा कुछ सम्मानित व्यक्ति गांव के बाहरी हिस्सों (सीमाओं) में जाकर देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करते हैं. पूजा की यह प्रक्रिया पूरी रात चलती है. पूजा के लिए चढ़े प्रसाद को वहीं पर ग्रहण करने की परंपरा है. प्रसाद घर लाने की अनुमति नहीं होती. इस पूजन में उस व्यक्ति का प्रवेश वर्जित होता है, जिसकी पत्नी गर्भवती होती है.
अगले दिन प्रातःकाल स्नान कर कृषक अपने बैलों एवं गायों को भी स्नान करवाते हैं, उनके सींगों और खुरों को विभिन्न रंगों से सजाया जाता है. गले में घुंघरू, घंटियों एवं कौड़ियों की माला पहनाई जाती है. इसके बाद किसान सपरिवार बैलों की पूजा करके उन्हें अच्छे भोजन खिलाते हैं और उनकी विधिवत तरीके से आरती उतारी जाती है. पूजा के उपरांत पूरे गांव में ढोल-नगाड़े के साथ इनका जुलुस निकाला जाता है.
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पोला का महत्व – Pola Mahatva
भारत की आय का मुख्य स्त्रोत कृषि है. कृषि प्रकृति प्रदत्त प्रमुख उपहार है, इसलिए यहां के लोग जीव-जंतुओं के साथ-साथ पेड़-पौधों, झील-तालाब इत्यादि की भी पूजा भगवान की पूजा की तरह ही करते हैं. भाद्रपद की अमावस्या के दिन मनाये जाने वाला यह पर्व मूलतः खरीफ की फसल के द्वितीय चरण (गुड़ाई-निराई) के दौरान मनाया जाता है.
चूंकि इन कार्यों में बैल और गाय की प्रमुख भूमिका होती है, इसलिए इस दिन कृषक अपने गाय-बैलों का सम्मान के साथ पूजन कर उनके प्रति प्रेम और कृतज्ञता दर्शाते हैं, कि वे ही उनकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत हैं. इसीलिए कृषक इन्हें देवता स्वरूप पूजते हैं.

यह पर्व हमें पशु-पक्षियों एवं प्रकृति के प्रति प्रेम भाव सिखाता है. इसी दिन से कृषक अपनी अगली खेती की शुरुवात भी करते है. छत्तीसगढ़ में कई जगहों पर भव्य मेलों का आयोजन किया जाता है. जहां बच्चों के मनोरंजन के साथ हाट सजाये जाते हैं.तमाम तरह की प्रतियोगिताएं होती है. कुछ प्रतियोगिताओं गाय बैलों के लिए भी आयोजित की जाती है.
पोला का द्वापर युग से संबंध :
पोला का संबंध वस्तुतः द्वापर युग से है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु ने जब कृष्ण के रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया था, उस समय उनके मामा कंस के अत्याचारों से समस्व्यात जनता पीड़ित थी. कंस को जब पता चला कि उसका संहार करने के लिए भगवान विष्णु ने कृष्ण के रूप में जन्म ले लिया है, तब कंस बाल कृष्ण को मारने के लिए अपने बलशाली असुरों को नंदबाबा के यहां भेजता है.
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जब एक-एक कर श्रीकृष्ण कंस के सारे राक्षसों का वध कर देते हैं, तब कंस अपने सबसे बलशाली राक्षस पोलासुर को कृष्ण की हत्या के लिए भेजता है. कृष्ण अपनी बाल सुलभ लीलाओं से पोलासुर का भी वध कर देते हैं, हिंदी पंचांग के अनुसार वह दिन भाद्रपद की अमावस्या का दिन था. उसी घटना के बाद से इस दिन को पोला के नाम से याद किया जाता है.

पोला पर खास पकवान :
इस दिन घरों में विशिष्ठ पकवान पूरन पोली, गुझिया, पूरी, एवं पांच तरह की सब्जी इत्यादि बनाई जाती है. शाम के समय लोग एक दूसरे को ‘हैप्पी पोला’ कहकर मुबारकबाद देते हैं. कुछ जगहों पर पशुओं के जुलूस भी निकाले जाते हैं. इसमें पशुओं के अलावा पूरे गांव के लोग भी शामिल होते हैं. छत्तीसगढ़ में कुछ जगहों पर पोला का पर्व दो दिनों तक मनाया जाता है. पहले दिन के पोला को मोठा पोला और अगले दिन को तनहा बोला जाता है.