18 जून को है रानी लक्ष्मीबाई बलिदान दिवस, जानिए वीरता और शौर्य की बेमिसाल कहानी | Rani Laxmi Bai History In Hindi

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हेल्लो दोस्तों अदम्य साहस, शौर्य और भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई की 18 जून को पुण्यतिथि है। बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी में जन्मी और मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी तथा स्वतन्त्रता के लिए 1857 में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध बिगुल बजाने वाली वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से संग्राम किया और रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुई रानी लक्ष्मीबाई को सर्वप्रथम शत शत नमन करता हूँ।

आज इस आर्टिकल में हम जानेंगे झाँसी राज्य की रानी लक्ष्मीबाई के बारे में जिन्होंने अपने राज्य की स्वतन्त्रता के लिए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल बजाया और अपने जीते जी ब्रिटिश साम्राज्य की सेना को अपने राज्य झाँसी पर कब्जा नहीं करने दिया। आइए जानते हैं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी के बारे में।

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प्रारंभिक जीवन

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (Freedom Fighters) की आदर्श वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का जन्म उत्तर प्रदेश में स्थित “बाबा विश्वनाथ की नगरी” वाराणसी (काशी) में 19 नवम्बर 1835 को मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथीबाई था। उनके पिता ने बिठूर जिले के पेशवा बाजी राव द्वितीय के लिए काम किया था। लक्ष्मीबाई के माता पिता मूल रूप से महाराष्ट्र के एक मराठी ब्राह्मण परिवार से थे। बचपन में लक्ष्मीबाई का नाम मणिकर्णिका रखा गया था और सब इन्हें प्यार से “मनुबाई और छबीली” कह कर पुकारते थे।

माता का निधन

मणिकर्णिका (लक्ष्मीबाई) की माँ भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं, लेकिन मनु को माँ का स्नेह ज्यादा दिन तक प्राप्त ना हो सका। जब मनु मात्र चार वर्ष की थी तब ही माँ भागीरथीबाई का निधन हो गया और माँ की भी ज़िमेद्दारी पिता मोरोपंत ताम्बे पर आ गयी। मनु के पिता मराठा बाजीराव की सेवा में कार्यरत थे। माँ के निधन के बाद पिता मोरोपंत ताम्बे मणिकर्णिका (मनु) की देखभाल के लिए अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले।

Rani Laxmi Bai History In Hindi
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शिक्षा

चार वर्ष की मनु अपनी सावली सूरत चंचल स्वभाव के कारण वहा के सभी लोगो का मन मोह लिया और वह सभी को अपनी ओर आकर्षित कर लिया मानो बाजीराव के दरबार में एक बहार सी आ गयी हो। लोग प्यार से उन्हें “छबीली” कह कर पुकारने लगे। मणिकर्णिका (मनु) ने सिर्फ शास्त्रों का ही ज्ञान नहीं लिया साथ में शस्त्रों की भी शिक्षा ली और तलवार बाजी में उनका कोई मुकाबला ना था। शास्त्रों और शस्त्रों की शिक्षा के साथ उन्हें घुड़सवारी का भी अच्छा ज्ञान था। मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ विद्या में निपूर्ण थी। उनके तीन घोड़े थे – सारंगी, पावन और बादल। रानी लक्ष्मी बाई तलवार का वजन 3.308 किग्रा था ।

विवाह

धीरे धीरे समय बिताता गया और मनु विवाह के योग्य हो गयी। सन्‌ 1838 में गंगाधर राव निम्बालकर को झांसी का राजा घोषित किया गया। वे विधुर थे। सन्‌ 1850 में मनुबाई से उनका विवाह संपन्न हुआ। इसके बाद मणिकर्णिका (manikarnika) झाँसी साम्राज्य की रानी बन गयीं, और उनका नाम बदल कर लक्ष्मीबाई कर दिया गया।

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पुत्र का जन्म

रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव को सन् 1851 में जिन्दगी की सबसे ख़ुशी का पल आया जब झाँसी राज्य के राजकुमार के रूप में एक पुत्र रत्न प्राप्ति हुई. सारे झाँसी में उत्सव का माहोल था परन्तु इस ख़ुशी को किसी की नज़र लग गई जब उस मासूम की मृत्यु महज चार माह की उम्र में ही हो गई। इस अप्रत्याशित घटना से गंगाधर राव को गहरा आघात लगा।

पति का निधन

उधर गंगाधर राव का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन बिगड़ता जा रहा था बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण उनके करीबी लोगो ने सलाह दी की एक दत्तक पुत्र (गोद) ले ले। उन्होंने उस सलाह को माना और गंगाधर राव के चचेरे भाई को गोद ले लिया। उसका नाम दामोदर राव रखा गया और उसी के बाद लगातार बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण गंगाधर राव निम्बालकर 21 नवम्बर 1853 को परलोक सिधार गए।

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अंग्रेजो नीति का विरोध

ब्रिटिश राज की हुकूमत ने दत्तक पुत्र बालक दामोदर राव को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से साफ़ इनकार कर दिया। 27 फरवरी 1854 को ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स) के अन्तर्गत झाँसी राज्य को अंग्रेजी साम्राज्य में विलय करने का सख्त फैसला कर लिया। यह सूचना पाते ही रानी ने कहा कि मैं किसी भी हाल में अपनी झांसी नहीं दूंगी।

इसके बाद रानी लक्ष्मी बाई जान लैंग नाम के एक अंग्रेज वकील से मिली और उनकी सलाह पर लंदन की अदालत में इस बात को लेकर एक मुकदमा दायर कर दिया। परन्तु अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कोई सख्त कदम वहां की अदालत उठा नहीं सकती थी इसी कारण काफी बहस के बाद इस मुकदमे को वही ख़ारिज कर दिया गया। उसके बाद उधर अंग्रेजों ने राज्य का सारा खज़ाना जब्त कर लिया और एक हुक्म भी सुना दिया गया की गंगाधर राव का कर्ज रानी अपने सालाना खर्च में से कटवाएँगे और साथ उन्हें किले को छोड़ कर रानी महल रहना होगा। इसी के साथ 7 मार्च 1854 को झांसी राज्य पर अंग्रेजी हुकूमत ने अपना अधिकार कर लिया, लेकिन इसके विपरीत रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी हिम्मत को हारने ना दिया और झाँसी की रक्षा करने का निश्चय संकल्प लिया।

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अंग्रेजी हुकुमत से संघर्ष

अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ और उनसे मोर्चा लेने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने एक स्वयंसेवक सेना का गठन किया। इस सेना में पुरुषों के साथ साथ महिलाओं की भी भर्ती की और उन्हें युद्ध कला का प्रशिक्षण दिया। इस आन्दोलन में झाँसी की आम जनता ने भी बढ़ चढ़ कर रानी लक्ष्मीबाई को सहयोग दिया। सेना के गठन के बाद सेना के कार्यभार की जिम्मेद्दारी रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी ही हमशक्ल “झलकारी बाई” को सेना प्रमुख के रूप में दिया। इसी के साथ झाँसी 1857 में अंग्रेजो के खिलाफ जंग का बिगुल फुकने वाला एक प्रमुख केन्द्र बन गया।

इस उठती आंधी को रोकने के लिए पडोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया परन्तु रानी ने अपनी सुझबुझ और पराक्रम से इसे विफल कर दिया। तिलमिलाये हुआ अंग्रेज जनवरी माह 1858 में अपनी ब्रितानी सेना के साथ झाँसी की ओर बढ़ना प्रारंभ कर दिया और मार्च के महीने में पूरे राज्य को चारो ओर से घेर कर किले पर हमला बोल दिया।

रानी लक्ष्मी बाई ने अपनी सेना का पूर्णत गठन कर लिया था और अंग्रेजो को मुहतोड़ जवाब देने के लिए तैयार थी. क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं और महल में रखा सोने एवं चाँदी के सामानों को तोपों के गोले बनाने के लिए दे दिया था। रानी ने किले की मजबूत क़िलाबन्दी की थी। तोपों और अपने वीर सिपाहियों से के साथ क्रोध से भरी रानी ने घोषणा की कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। रानी के क्रोध और कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी आश्चर्य चकित सा रह गया।

अंग्रेज़ों की कूटनीति चाल

अंग्रेजी हुकूमत किले पर कब्ज़ा पाने के लिए लगातार आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे परन्तु रानी और उनकी प्रजा रूपी सेना ने अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करने की प्रतिज्ञा ली थी जिससे अंग्रेजी हुकूमत को सफलता हाथ नहीं लग रही थी। अंग्रेजी सरकार की सेना के सेनापति ह्यूराज जान चुके थे कि अपने सैन्य-बल से किले को जीतना सम्भव नहीं है।

तब उसने अपनी जीत के लिए कूटनीति चाल का प्रयोग किया और झाँसी के एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को प्रलोभन दे अपने पक्ष में मिला लिया। तब झाँसी गद्दार सरदार दूल्हा सिंह ने अंग्रेजो के लिए किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। उसके बाद फिरंगी सेना उसी रास्ते से क़िले में प्रवेश कर गई, और चारो तरफ लुट-पाट तथा नरपिशाचों की तरह वहां की प्रजा का रक्त बहाने लगी।

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वीरगति की प्राप्ति

रानी के कुछ विशेष सलाहकारों ने सुझाव दिया की अंग्रेजी सेना के आगे झाँसी की सेना काफी तादाद में कम हैं और शत्रुओं पर विजय पाना असम्भव सा है। विश्वासपात्रों की इस सलाह पर रानी वहां से कालपी की ओर निकल पड़ी। परन्तु शत्रुओं द्वारा चलायी गयी एक गोली रानी के पैर में जा लगी। गोली लगने के कारण उनकी गति कुछ कम हो गई और दुर्भाग्य से मार्ग में एक नाला आ गया। घोड़ा उस नाले को पार ना कर सका जिसके कारण अंग्रेज़ घुड़सवार उनके समीप आ गए।

एक अंग्रेज घुड़सवार ने पीछे से रानी के सिर के ऊपर प्रहार किया जिससे उनके सिर का दाहिना हिस्सा कट गया और उनकी एक आंख बाहर आ गयी। रक्त से नहा उठी रानी को असहनीय पीड़ा हो रही थी इसके बावजूद उनके मुख पर पीड़ा की एक भी लकीर नहीं थी। उसी समय दूसरे सैनिक ने संगीन से उनके हृदय पर वार कर दिया।

असहनीय पीड़ा के बावजूद रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होंने आखिरकार दोनों आक्रमणकारियों का मौत के घाट उतार डाला और स्वयं भूमि पर गिर पड़ी। उसके पाश्चात्य उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर अपनी तेजस्वी नेत्र को सदा के लिए बन्द कर वीर गति को प्राप्त हो गयी।

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आखिर क्षण

इस आखिर क्षण में रानी के साथ पठान सरदार गौस ख़ाँ और स्वामिभक्त रामराव देशमुख थे जो कि रानी के रक्त रंजित शरीर को समीप में ही स्थित बाबा गंगादास की कुटिया में ले आये और रानी ने बाबा से जल माँगा और बाबा ने उन्हें आखिर क्षण में जल पिलाया। 18 जून 1858 को रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुई।

झाँसी राज्य की रानी और प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना “रानी लक्ष्मीबाई” मात्र 23 वर्ष की आयु में अपने जीते जी किले पर अंग्रेजो का कब्ज़ा ना करने देने के संकल्प के साथ अंग्रेज़ साम्राज्य की सेना से संग्राम किया। वह बेहतरीन बेटी, महारानी, पत्नी व माँ तथा कुशल प्रशासक, योग्य सेनापति सिद्ध हुईं। वह स्वयं की तरह हर भारतीय बेटी को सशक्त होते देखना चाहतीं थीं। जिस कारण उन्होंने अपनी सेना में महिलाओं की भर्ती की थी। ऐसी वीर वीरांगना “रानी लक्ष्मीबाई” को हम सब की तरफ से शतशत नमन।

लक्ष्मी बाई पर कविता

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
‘नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रचना – सुभद्रा कुमारी चौहान

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