Harisingh Gaur Jayanti : डॉ. हरि सिंह गौर एक ऐसी शख्सियत हैं, जो किसी परिचय की मोहताज नहीं है। सागर विश्वविद्यालय की स्थापना डॉ सर हरीसिंह गौर ने सन् 1946 में अपनी निजी पूंजी से की थी। यह भारत का सबसे प्राचीन तथा बड़ा विश्वविद्यालय रहा है। अपनी स्थापना के समय यह भारत का 18वां तथा किसी एक व्यक्ति के दान से स्थापित होने वाला यह देश का एकमात्र विश्वविद्यालय है।
सागर वालों के लिए ‘गौर जयंती’ (Dr. Harisingh Gaur Jayanti) दीवाली/ईद से कुछ कम नहीं है। 26 नवम्बर 2022 डॉ. हरि सिंह गौर की 152वीं जयंती है। 18 जुलाई 1946 में लगभग दो करोड़ रूपये अपनी निजी संपत्ति (व्यक्तिगत कमाई और पैत्रक मिलाकर) में से दान कर डॉक्टर सर हरिसिंह गौर ने सागर विश्वविद्यालय बनवाया!
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डॉ॰ हरिसिंह गौर, (26 नवम्बर 1870 – 25 दिसम्बर 1949) सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक, शिक्षाशास्त्री, ख्यति प्राप्त विधिवेत्ता, न्यायविद्, समाज सुधारक, साहित्यकार (कवि, उपन्यासकार) तथा महान दानी एवं देशभक्त थे। वह बीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मनीषियों में से थे। वे दिल्ली विश्वविद्यालय तथा नागपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। वे भारतीय संविधान सभा के उपसभापति, साइमन कमीशन के सदस्य तथा रायल सोसायटी फार लिटरेचर के फेल्लो भी रहे थे।उन्होने कानून शिक्षा, साहित्य, समाज सुधार, संस्कृति, राष्ट्रीय आंदोलन, संविधान निर्माण आदि में भी योगदान दिया।
उन्होने अपनी गाढ़ी कमाई से 20 लाख रुपये की धनराशि से 18 जुलाई 1946 को अपनी जन्मभूमि सागर में सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा वसीयत द्वारा अपनी निजी सपत्ति से 2 करोड़ रुपये दान भी दिया था। इस विश्वविद्यालय के संस्थापक, उपकुलपति तो थे ही। डॉ॰ सर हरीसिंह गौर एक ऐसा विश्वस्तरीय अनूठा विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना एक शिक्षाविद् के द्वारा दान द्वारा की गई थी।

जीवनी :
डॉ॰ सर हरीसिंह गौर का जन्म महाकवि पद्माकर की नगरी ग्राम – सागर जिले के शनिचरी टोरी कस्बे सागर (म.प्र.) के पास एक निर्धन परिवार में 26 नवम्बर 1870 को हुआ था। उन्होने सागर के ही गवर्नमेंट हाईस्कूल से मिडिल शिक्षा प्रथम श्रेणी में हासिल की। उन्हे छात्रवृत्ति भी मिली, जिसके सहारे उन्होंने पढ़ाई का क्रम जारी रखा, मिडिल से आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर गए फिर महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए नागपुर के हिसलप कॉलेज (Hislop College) में दाखिला ले लिया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में की थी। वे प्रांत में प्रथम रहे तथा पुरस्कारों से नवाजे गए।
शिक्षा :
डॉ. गौड़ बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। प्राइमरी के बाद इन्होनें दो वर्ष मेँ ही आठवीं की परीक्षा पास कर ली जिसके कारण इन्हेँ सरकार से 2रुपये की छात्र वृति मिली जिसके बल पर ये जबलपुर के शासकीय हाई स्कूल गये। लेकिन मैट्रिक में ये फेल हो गये जिसका कारण था एक अनावश्यक मुकदमा। इस कारण इन्हें वापिस सागर आना पड़ा दो साल तक काम के लिये भटकते रहे फिर जबलपुर अपने भाई के पास गये जिन्होने इन्हें फिर से पढ़ने के लिये प्रेरित किया।
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सन् 1889 में उच्च शिक्षा लेने इंग्लैंड गए। सन् 1892 में दर्शनशास्त्र व अर्थशास्त्र में ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की। फिर 1896 में M.A., सन 1902 में LL.M. और अन्ततः सन 1908 में LL.D. किया। कैम्ब्रिज में पढाई से जो समय बचता था उसमें वे ट्रिनिटी कालेज में डी लिट्, तथा एल एल डी कीपडाई करते थे। उन्होने अंतर-विश्वविद्यालयीन शिक्षा समिति में कैंब्रिज विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया, जो उस समय किसी भारतीय के लिये गौरव की बात थी। डॉ॰ सर हरीसिंह गौड ने छात्र जीवन में ही दो काव्य संग्रह दी स्टेपिंग वेस्टवर्ड एण्ड अदर पोएम्स एवं रेमंड टाइम की रचना की, जिससे सुप्रसिद्ध रायल सोसायटी ऑफ लिटरेचर द्वारा उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।
उपलब्धि :
सन् 1912 में वे बैरिस्टर होकर स्वदेश आ गये। उनकी नियुक्ति सेंट्रल प्रॉविंस कमीशन में एक्स्ट्रा `सहायक आयुक्त´ के रूप में भंडारा में हो गई। उन्होंने तीन माह में ही पद छोड़कर अखिल भारतीय स्तर पर वकालत प्रारंभ कर दी व मध्य प्रदेश, भंडारा, रायपुर, लाहौर, कलकत्ता, रंगून तथा चार वर्ष तक इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल में वकालत की, उन्हें एलएलडी एवं डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि से भी विभूषित किया गया। 1902 में उनकी द लॉ ऑफ ट्रांसफर इन ब्रिटिश इंडिया पुस्तक प्रकाशित हुई। वर्ष 1909 में दी पेनल ला ऑफ ब्रिटिश इंडिया (वाल्यूम २) भी प्रकाशित हुई जो देश व विदेश में मान्यता प्राप्त पुस्तक है। प्रसिद्ध विधिवेत्ता सर फेडरिक पैलाक ने भी उनके ग्रंथ की प्रशंसा की थी।

वे शिक्षाविद् भी थे। सन् 1921 में केंद्रीय सरकार ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना की तब डॉ॰ सर हरीसिंह गौर को विश्वविद्यालय का संस्थापक कुलपति नियुक्त किया गया। 9 जनवरी 1925 को शिक्षा के क्षेत्र में `सर´ की उपाधि से विभूषित किया गया, तत्पश्चात डॉ॰ सर हरीसिंह गौर को दो बार नागपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया।
राजनैतिक सफ़र :
डॉ॰ सर हरीसिंह गौर ने 20 वर्षों तक वकालत की तथा प्रिवी काउंसिल के अधिवक्ता के रूप में शोहरत अर्जित की। वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य रहे, लेकिन 1920 में महात्मा गांधी से मतभेद के कारण कांग्रेस छोड़ दी। वे 1935 तक विधान परिषद् के सदस्य रहे। वे भारतीय संसदीय समिति के भी सदस्य रहे, भारतीय संविधान परिषद् के सदस्य रूप में संविधान निर्माण में अपने दायित्वों का निर्वहन किया। विश्वविद्यालय के संस्थापक डॉ॰ सर हरीसिंह गौर ने विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद नागरिकों से अपील कर कहा था कि सागर के नागरिकों को सागर विश्वविद्यालय के रूप में एक शिक्षा का महान अवसर मिला है, वे अपने नगर को आदर्श विद्यापीठ के रूप में स्मरणीय बना सकते हैं।
विश्वविद्यालय की स्थापना :
डॉ॰ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय भारत के मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित एक सार्वजनिक विश्वविद्यालय है। इसको सागर विश्वविद्यालय के नाम से भी जाना जाता है। इसकी स्थापना डॉ॰ हरिसिंह गौर ने 18 जुलाई 1946 को अपनी निजी पूंजी से की थी। अपनी स्थापना के समय यह भारत का 18वाँ विश्वविद्यालय था। किसी एक व्यक्ति के दान से स्थापित होने वाला यह देश का एकमात्र विश्वविद्यालय है। वर्ष 1983 में इसका नाम डॉ॰ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय कर दिया गया। 27 मार्च 2008 से इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय की श्रेणी प्रदान की गई है।

पंडित रविशंकर शुक्ल चाहते थे जबलपुर में बने विश्वविद्यालय :
लोग बताते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री [तब मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहते थे और तब मध्यप्रदेश नहीं था, प्रदेश का नाम था- Central Province (CP & Barar)] पंडित रविशंकर शुक्ल चाहते थे कि विश्वविद्यालय जबलपुर में बने चूंकि बड़ा शहर है, लेकिन डॉ. गौर अतिपिछड़े बुंदेलखंड के अतिपिछड़े शहर सागर के नाम पर अड़े रहे और यह तक कह दिया की भले ही सरकारी मदद ना मिले, विश्वविद्यालय तो सागर में ही बनेगा। वही सागर जहां स्याही तक नहीं मिलती थी। हालाँकि बाद में पंडित जी के हस्तक्षेप के बाद 18 जुलाई 1956 को सागर में विश्वविद्यालय की स्थापना हुई।
1946 में विश्वविद्यालय बना, डॉ गौर उसके कुलपति बने और पदेन कुलाधिपति (Chancellor) बने पंडित रविशंकर शुक्ल। यहां दो बातें उल्लेखनीय हैं- पहली यह कि सागर पं. शुक्ला की भी जन्मभूमि है और दूसरी यह कि जब 1923 में नागपुर विश्वविद्यालय बना तब पंडित जी उसकी Executive Council में थे और पहले कुलपति (Vice Chancellor) बने डॉ. गौर।
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सागर का इतिहास :
सागर शहर का इतहास 1660 A.D.में जाता है और यह माना जाता है की उड़ान शाह जो निहाल सिह के वंशज थे उन्होंने एक छोटा सा किला बनवाया था जो परकोटा कहलाता है और आज शहर के अन्दर स्तिथ है | इसके बाद वर्तमान किला और एक इसकी दीवारों के तहत निपटान गोविंद राव पंडित , पेशवा के एक अधिकारी , द्वारा स्थापित किया गया था जब सागर पर पेशवा का शासन था |
1818 ईस्वी में , जिले के अधिक से अधिक हिस्सा पेशवा बाजीराव द्वितीय द्वारा सौंप दिया गया था ब्रिटिश सरकार को, जबकि के वर्तमान जिले के बाकी के विभिन्न भागों सागर 1818 और 1860 के बीच अलग अलग समय पर अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। बांदा तहसील के धामोनी परगना अप्पाजी भोंसला द्वारा 1818 ईस्वी में सौंप दिया गया था । राहतगढ़, गढ़ाकोटा, देवरी, गौरझावर और नहारमोऊ एकसाथ पांच महल के रूप में जाने जाते थे | यह सब सिंदिया के राजाओ द्वारा 1820, 1825 के बीच अंग्रेजो को सोप दिए गए | बाँदा का शाहगढ़ 1857 के बाद अस्तित्व में आया |

सागर ऐसे बना जिला :
प्रशासकीय दृष्टी से सागर और उसके आसपास के स्थान्नो में बहुत ज्यादा बदलाव करना पडा | सागर क्षेत्र को सबसे पहले बुंदेलखंड के राजनीतिक मामलों के अधीक्षक के प्रशासन में रखना पडा | बाद में 1920 में इसे गवर्नर जनरल के प्रशासन में रखा गया | उत्तर- पश्चिमी प्रांत 1835 में गठित किया गया था, सागर और नर्बदा शासित प्रदेशों में इस प्रांत में शामिल थे। 1842 में गवर्नर जनरल को बुंदेलखंड की और ज्यादा ध्यान देने की बात की गयी | इसके बाद 1861 में सागर और नर्बदा प्रदेशों, को नागपुर राज्य के साथ साथ एक आयुक्त के प्रांत में गठन किया गया |
सागर एक छोटी अवधी के लिए कमिश्नर का मुख्यालय रहा पर 1863-64 में इसे जबलपुर संभाग में ले लिया गया | 1932 में दमोह सागर जिले में जोड़ा गया पर बाद में इसे अलग जिला बना दिया गया | उस समय सागर में सिर्फ 4 ही तहसील थी, सागर, खुरई, रहली, और बंडा |
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